इस्लाम फोबिया और विश्व सिनेमा

अजित राय

बेल्जियम के ज्यां पियरे और लुक दारदेन की फिल्म ” यंग अहमद ”  दुनिया भर में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों द्वारा जेहाद के नाम पर बच्चों के दिमाग में हिंसा का जहर घोलने की साज़िशों के खिलाफ एक सिनेमाई प्रतिरोध है।

हाल ही में संपन्न हुए भारत के 50 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ऐसी कई फिल्में  दिखाई गई जो इस्लाम फोबिया से ग्रस्त हमारी दुनिया में अंतर धार्मिक रीति-रिवाजों की टकराहट को सामने लाती है। समारोह की ओपनिंग फिल्म ” डिस्पाइट द फाग ” यूरोप में जारी मुस्लिम शरणार्थियों की समस्या की पृष्ठभूमि में एक अनाथ बच्चे की कहानी है ।सर्बिया के चर्चित फिल्मकार गोरान पास्कलजेविक ने यूरोपीय देशों में मुस्लिम शरणार्थियों की स्वीकृति और अस्वीकृति का मुद्दा उठाया है। इससे पहले वे उत्तराखंड में विक्टर बैनर्जी को लेकर ” देवभूमि ” फिल्म बना चुके हैं जिसे अमेजन पर करीब एक करोड़ लोग देख चुके हैं।

“डिस्पाइट द फाग ” युद्ध के खिलाफ एक राजनैतिक टिप्पणी है। यूरोप में जारी मुस्लिम शरणार्थियों के विरोध के घनघोर माहौल में गोरान पास्कलजेविक सवाल करते हैं कि कोई भी अपना देश और संस्कृति शौक से नही, मजबूरी में ही छोड़ता है। आठ साल का मोहम्मद स्वीडन से इटली आने के दौरान अपने पिता से बिछड़ गया है। रोम की सुनसान सड़क के बस अड्डे पर ठंड से बचने की असफल कोशिश करता है। रात गहरा रही है और सुबह से पहले कोई बस नहीं आएगी। रेस्त्रां मैनेजर पाउलो उसे अपने घर ले आता है। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद उसकी पत्नी वेलेरिया उसे घर में रखने को राजी हो जाती है।

मोहम्मद अपनी मुस्लिम पहचान के प्रति सचेत है। वह कमरे में छुपकर नियम से नमाज पढ़ता है जबकि वेलेरिया उसमें अपने मर चुके बेटे मार्को की छवि देखने लगती है। क्रिसमस आने वाला है और सारा रोम उसकी तैयारी में लगा है। ईसाई संस्कृति से अनजान मोहम्मद को अकेलापन महसूस होता है और वह बार बार स्वीडन जाने की जिद करता है। फिल्म में धार्मिक रीति-रिवाज को लेकर कई बहसें है। अधिकतर इसाई परिवार मोहम्मद को रखने के खिलाफ है। क्रिसमस की सुबह पाउलो के कहने पर मोहम्मद को लेने पुलिस आती है पर तब तक वेलेरिया उसे लेकर स्वीडन की ओर निकल चुकी होती हैं। गहरी धुंध से भरी वीरान सड़क पर हम कार में वेलेरिया और मोहम्मद को दूर जाते हुए देखते हैं।

मास्टर फ्रेम खंड में  बेल्जियम के ज्यां पियरे और लुक दारदेन की फिल्म ” यंग अहमद ”  दुनिया भर में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों द्वारा जेहाद के नाम पर बच्चों के दिमाग में हिंसा का जहर घोलने की साज़िशों के खिलाफ एक सिनेमाई प्रतिरोध है।  13 साल का अहमद एक मौलवी के चक्कर में जेहादी बनना चाहता है। वह जेहाद के अभ्यास के लिए अपनी ईसाई टीचर की हत्या का असफल प्रयास करता है। उसे सुधारने के लिए एक फार्म हाउस में रखा जाता है। फार्म हाउस के मालिक की बेटी लूइस  एक दिन उसे प्यार से चूम लेती है। अहमद को लगता है कि वह इस चुंबन से अपवित्र हो गया और उसका जेहाद खतरे में पड़ गया। वह लूइस को कहता है कि उसके चुंबन से वह अपवित्र हो गया है इसलिए वह इस्लाम कबूल कर लें जिससे सब ठीक हो जाय। अहमद की मां, टीचर, जज, वकील, मनोवैज्ञानिक, सहपाठी, दोस्त – किसी को सपने में भी यकीन नहीं हो सकता कि अहमद जैसा मासूम बच्चा सच्चा मुसलमान बनने के लिए दूसरे की हत्या करने का निर्णय ले सकता है। फिल्म के यूरोप में मुस्लिम बच्चों के मनोविज्ञान को सादगी से सामने लाती है।

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