रचित ने जो यातना झेली, सिहरन पैदा करती है

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प्रणय कुमार

22 फरवरी को प्रिय आशीष के आग्रह पर मीडिया स्कैन की चर्चा में रहना हुआ। हम प्रायः आँखों देखे, कानों सुने सत्य व  अनुभवों को शब्द देते हैं, परंतु भोगे हुए यथार्थ, कटु यथार्थ को शब्द दे पाना आसान नहीं होता! बहुत साहस चाहिए उसके लिए। रचित जी ने पिछले दिनों जो यातनाएँ झेलीं, वह अत्यंत भयावह और पीड़ादायक हैं। सिहरन पैदा करने वाली हैं, डराने वाली हैं। हम जो राष्ट्र व धर्म के लिए विभिन्न मंचों पर मुखर हैं, उन सबके समक्ष यह संकट है। बल्कि यों कहना चाहिए कि दुहरा संकट है। विचारधारा के साझेदार  कहते हैं कि नायक बनने किसने कहा था, क्या आवश्यकता थी इस सीमा तक लिखने-बोलने, हस्तक्षेप करने की? और विरोधी तो अवसर की ताक में ही बैठे हैं। मिटा डालना चाहते हैं, मसल डालना चाहते हैं, बात प्राणों तक बन आती है।

चूँकि धर्म और राष्ट्र हमारा अपना चयन है, इसलिए किसी से कोई अपेक्षा नहीं, कोई शिकायत नहीं, अपना सलीब अपने ही कंधों पर ढोते हुए अंतिम साँस तक धर्म व राष्ट्र के लिए जीना, प्राणों तक को दांव पर लगा देना कदाचित  सौभाग्य ही कहा जाएगा! परंतु बात जब घर-परिवार तक बन आती है तो चिंता होती है और अपेक्षा भी। अपेक्षा उनसे, जिन्हें हम वर्षों से परिवार मानते चले आए हैं।

अपेक्षा उनसे, जिनके लिए हम लिखते-बोलते, मुखर हस्तक्षेप करते आए हैं। आप मानें अथवा न मानें, जो समाज व संगठन संकट में खड़े-घिरे अपने योद्धाओं से किनारा कर ले, समय आने पर उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, प्रायश्चित करना पड़ता है। इसलिए सब प्रकार के किंतु-परंतु की व्याख्या और विश्लेषण को भविष्य पर छोड़िए। वर्तमान में अपने योद्धाओं के साथ खड़े हों, दृढ़ता से खड़े हों। ‘संगठन में शक्ति है’ केवल नारा या उद्घोष में नहीं, भाव में उतरे, धरातल पर दिखाई दे!

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