भारत के प्रति पश्चिमी मीडिया के नैरेटिव का पोस्टमार्टम

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बिजेंदर कुमार
              Western Media Narratives on India 
                           from Gandhi to Modi 
              Writer – Sh. Umesh Upadhayaa
दिल्ली। लेखक और वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय जी ने इस पुस्तक में पश्चिमी मीडिया  के   भारत के प्रति नैरेटिव जैसे गंभीर विषय पर अपनी बात रखने का साहस दिखाया है। इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है। पुस्तक का महत्व इसलिए बढ़ जाता है कि वामपंथ के अतिरिक्त भी मीडिया समीक्षा की एक राष्ट्रीयतापरक दृष्टि हो सकती है, ये स्थापना  इस पुस्तक के माध्यम से स्थापित हुई है।  पुस्तक भारत में औपनिवेशिक शासन के आरंभ से  लेकर वर्तमान समय तक लगभग दो सौ वर्ष के इतिहास के पश्चिमी मीडिया के पूर्वाग्रह की पड़ताल करती है, जिसकी पुष्टि यथास्थान विभिन्न घटनाओं, तथ्यों, विवरणों और बयानों से बहुत रोचक तरीके से होती चलती है।
      पुस्तक दो सौ साल से चले या रहे  पश्चिमी नैरेटिव के  न केवल भारत, बल्कि अफ्रीका,लैटिन अमेरिका और एशिया समेत तीसरी दुनिया के विभिन्न विकासशील और अविकसित देशों के प्रति उसकी हिकारत और भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण का सिलसिलेवार परत दर परत विवेचन ही नहीं करती, बल्कि मीडिया को समझने का देशज नैरेटिव बनाते दिखती है, जिसमें स्थानीयता, स्वाभिमान, आत्मसम्मान और स्व भाव का गौरव है। पश्चिमी मीडिया का एकांगी, एकाधिकारवादी और अधिनायकवादी रवैया इस पुस्तक में प्रमाण सहित उजागर किया गया है।
      उमेश उपाध्याय जी  1975 में सूरीनाम आजादी की घटना की पश्चिमी मीडिया में उपेक्षापूर्ण कवरेज से पुस्तक का  आरंभ करते हुए वर्तमान समय में  डिजिटल मीडिया के नए एकाधिकारवादी आयामों , नई विश्व सूचना व्यवस्था और उसमें भारत की भूमिका को लेकर गंभीर वैचारिकी प्रस्तुत करते हैं। पश्चिमी मीडिया के साथ दक्षिण अमेरिकी प्रेस ने भी सूरीनाम की आजादी को की बहुत कम कवरेज की । इसका कारण लैटिन अमेरिका ,अफ्रीका ,एशिया समेत विकासशील और अविकसित देशों का सूचनाओं के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भरता थी जिसका मनमाना लाभ पश्चिमी मीडिया लेता रहा है । संसाधनों से लबरेज सूचना तंत्र के चलते विकसित देशों ने न  केवल सूचना एकाधिकारवादी दृष्टिकोण अपनाया बल्कि तमाम पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर अपने औपनिवेशिक राजनैतिक ,व्यावसायिक और सांस्कृतिक  हितों को भी साधा ।
        1970 के दशक में गुटनिरपेक्ष देशों ने सूचना साम्राज्यवाद को थोड़ी चुनौती अवश्य दी लेकिन आज भी ग्लोबल वित्तीय संस्थानों और सूचना तंत्र पर विकसित  देशों का आधिपत्य है। विश्व का अधिकांश सूचना प्रवाह इन देशों की न्यूज एजेंसियों के द्वारा नियंत्रित और संचालित है जिनमें ए पी ,रायटर ,ए एफ पी ,यू पी आई प्रमुख हैं। its an old story नामक प्रथम अध्याय में उमेश जी विस्तार से इनके वित्तीय हितों और नेरेटिव की पड़ताल करते हैं। इन एजेंसियों के निर्णय और प्राथमिकता की तहों में झाँककर देखने पर बाजार हितों और वैश्विक सत्ता समीकरणों की परतें खुलती हैं । उमेश जी इन परतों को खोलने में बहुत हद तक निष्पक्ष रहे हैं।
 दूसरे अध्याय में लेखक ने भारत में आजादी और उसके  बाद मीडिया के उभार और भारतीय राजनीति के प्रति पश्चिमी मीडिया के द्वारा की गई कवरेज के अनेक उदाहरणों से सिद्ध किया कि भारतीय नेताओं खासकर  गांधी ,नेहरू,अंबेडकर  और पटेल आदि के बारे की गई एजेंडा रिपोर्टिंग में निहित नेरेटिव न केवल भेदभावकारी है बल्कि भारत के प्रति हीनता का भाव रखने की पारंपरिक मंशा भी शरारत पूर्ण है।डा अंबेडकर ने तो अपने बारे में पश्चिमी प्रेस की संदिग्ध रिपोर्टिंग  और  गलतबयानी की पीड़ा को व्यक्त भी किया । चर्चिल ने आजादी को लेकर भारत पर जो सवाल और संदेह व्यक्त किए उनको पश्चिमी प्रेस ने हाथों -हाथ लेकर भारत के  राजनीतिक नेत्रत्व को कठघरे में रखा । पुस्तक इस नेरेटिव को ध्वस्त भी करती है और औपनिवेशिक सोच की संकीर्णता को उजागर भी करती है।आजादी के बाद  भारत  के  गुटनिरपेक्ष  रवैये की तुलना में पाकिस्तान का पिछलग्गू दृष्टिकोण पश्चिमी प्रेस का चहेता बनना बताता है कि पश्चिमी प्रेस शीत युद्ध के दौर में खेमेबाजी से मुक्त नहीं थी बल्कि वो खुद पश्चिमी  खेमे की  प्रतिनिधि की तरह व्यवहार कर रही थी ।
तीसरे अध्याय में पश्चिमी मीडिया के द्वारा इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और भारतीय राजनीति के विविध आयामों की एकतरफा और एजेंडा रिपोर्टिंग पर लेखक ने प्रकाश डाला  है। निक्सन के अशिष्ट व्यवहार को पश्चिमी मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी हालांकि कालांतर में किसिंजर को इसके लिए माफी माँगनी पड़ी । अपनी रिपोर्टिंग के चलते बी बी सी को बैन का सामना भी करना पड़ा । एक बार आपातकाल में और एक बार और । भारत विरोधी एजेंडा भी पश्चिमी मीडिया का प्रिय शगल रहा है।
     लेखक के अनुसार बी बी सी की स्वायतता अपने आप में संदेह से परे नहीं रही है। जगजीत सिंह चौहान के साक्षात्कार में आपत्तिजनक कंटेन्ट को न हटाना इसका प्रमाण है। भारतीय  संसद पर हमले और ट्विन टॉवर पर हमले की पश्चिमी मीडिया द्वारा कवरेज में भी भेदभाव किया गया । जिस प्रकार का मीडिया अभियान पश्चिमी मीडिया ने अमेरिकी हमले को लेकर चलाया वैसा भारतीय संसद पर हुए हमले की कवरेज में देखने को नहीं मिला । पुस्तक सवाल उठाती है कि मंगल यान ,चंद्रयान ,पुलवामा और कारगिल जैसी अनेक घटनाओं में पश्चिमी मीडिया सिलेक्टिव क्यों हो जाती है और भ्रामक कवरेज क्यों करती है? इस अध्याय में लेखक कुछ गंभीर सवाल भी सामने रखते हैं कि कैसे  पश्चिमी मीडिया भारत का गरीबी के नाम पर उपहास करता है? लेखक भारत की गरीबी के पीछे उपनिवेशी शोषण और दमन को प्रमुख कारण मानते है और पिछले कुछ सालों में गरीबी के कम होने को सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं।लेखक के अनुसार  इसरो और भारतीय सेटेलाइट मार्केट का उभार  पश्चिमी मीडिया सहन कर पा रहा है।
       पाँचवाँ  अध्याय कोविड और मोदी को लेकर है जिसे लेखक ने विस्तार से और मन से लिखा है। इसमें उन्होंने पश्चिमी प्रेस के द्वारा स्पेनिश फ्लू रिपोर्टिंग और उसमें उसके द्वारा गांधी जी बारे फैलाई गई निराधार खबरों का पर्दाफाश किया है। अवैज्ञानिक अफवाहें ,भ्रम पैदा करना ,अप्रमाणिक तथ्यों तथा यूरोप ,अमेरिका ,इंग्लैंड और भारत में कोविड रिपोर्टिंग के बारे जिस भेदभाव और एजेंडा भाषा का प्रयोग किया उसको लेकर लेखक ने परत दर परत पड़ताल की और पश्चिमी नेरेटिव को बेनकाब किया है।भारतीय वैक्सीन ,वैरियंट और फार्मा लॉबी के बारे में भी पुस्तक  प्रामाणिक  जानकारी प्रदान करके पश्चिमी मीडिया के   नेरेटिव की कलई खोलती है।
     छठा अध्याय भारत के बारे में पश्चिमी मीडिया के पुराने लेकिन निरंतर चलने वाले नेरेटिव के बारे में है जिसमे भारत को सपेरों का देश कहा जाता रहा है। सातवें अध्याय में लेखक ने पश्चिमी मीडिया के भारत के प्रति निरंतर जारी ओपनिवेशिक नेरेटिव की परतों को खंगाल कर उसके राजनीतिक ,आर्थिक और सांस्कृतिक आयामों के संदर्भ में डिजिटल मीडिया के वर्चस्व का विवेचन किया है। फेसबूक ,ट्विटर (अब एक्स )यूट्यूब आदि सोशल नेटवर्किंग साइट्स कैसे पश्चिमी नेरेटिव को आगे ले जाने का काम करती है,इसका वर्णन भी किया गया है। पुस्तक अंग्रेजी में है लेकिन लेखक ने भाषा की सरलता और सहजता का ध्यान रखा है। कुल मिलाकर पुस्तक मीडिया नेरेटिव को समग्रता में प्रस्तुत करती है और पश्चिमी मीडिया की एकतरफा एजेंडा कवरेज और नेरेटिव के साथ उसके निहित आर्थिक ,राजनीतिक और सांस्कृतिक हितों की वास्तविकता को सही मायने में सामने लाती है।

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