आंदोलनों में लगे दीमक हैं आंदोलनजीवी

113.1-2.jpg

 डॉ. सुजाता मिश्र

आज़ादी का संघर्ष भारतीय समाज में पुनर्जागरण का एक ऐसा दौर था जिसमें  नये भारत का भविष्य लिखा जा रहा था। तमाम तरह की समाजिक विसंगतियों से मुक्ति, रुढिवाद से मुक्ति और नये – बेहतर कल के इस राष्ट्रीय कायाकल्प का आधार ही “राष्ट्रवाद” था। समाज का बुद्धिजीवी  वर्ग इस बदलाव का पथ प्रदर्शक था, जिसमें स्वामी दयानंद सरस्वती, राजाराम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर , स्वामी विवेकानंद जैसे राष्ट्रभक्त शामिल थे। इसके साथ ही साहित्यकारों , पत्रकारों का देशभक्त वर्ग भी नवजागरण के इस प्रकाश को गांव – कस्बों सहित समस्त देश में फैला रहा था। मकसद था विदेशी शासन से मुक्ति…. स्वराज्य की स्थापना, इसीलिये आत्मगौरव , राष्ट्र्गौरव के भाव को जन – जन में जगाने का प्रयास शुरु हुआ। ये सभी राष्ट्र्भक्त बुद्धिजीवी , सजग समाजिक समूह ही समाज सेवक कहलाये। जनता के मार्गदर्शक के रूप में इनका स्थान सत्ता से , पुलिस प्रशासन से यहां तक की अंग्रेजी कानूनों से भी ऊपर था।

वर्ष 1947 में देश आज़ाद हो गया, लेकिन तब तक पत्रकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पुन: रीतिकालीन दरबारी परिवेश में लौट गया था। ब्रिटिश हुकूमत के रहते यह वर्ग अंग्रेजों को खुश करने हेतु, उनका दिल जीतने हेतु साहित्य सृजन करता था, बदले में बडे – बडे सम्मान, पुरस्कार और पद प्राप्त करता था। इसी कथित बुद्धिजीवी अवसरवादी वर्ग ने अंग्रेजी शासन से विरुद्ध संघर्ष की दिशा बदलकर धर्म, जाति , गरीबी, अमीरी पर केंद्रित कर दी। परिणामत: देश आज़ाद तो हुआ किंतु मज़हबी आधार पर बंटवारे के साथ। समाज को धर्म- मज़हब , अमीर – गरीब और जातिगत वर्गो में बांटने वाले झंडाबरदार अब समाज सुधारक कहलाये जाने लगे। साहित्य, सिनेमा,  गीतों के माध्यम से बडे जतन और चालाकी के साथ आमजन के मन से पत्रकारों और एनजीओ धारी व्यावसायिक समाज सेवकों को समाज के सच्चे हितैषी के रूप में स्थापित किया गया। ये जो कहे वही सौ आना सच। ये जब चाहे, जिसके खिलाफ मोर्चा खोल दें। गांधी जी को अपना “ब्रांड अम्बेसडर” बनाकर इन लोगों ने इस देश में अहिंसा पूर्वक विरोध के नाम पर धरना, प्रदर्शन , अनशन को एक राजनीतिक तमाशा बनाकर रख दिया। बात – बात पर लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देना किंतु स्वयं को जनता द्वारा चुनी गयी सरकार से भी ऊपर मानना! व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद,जातिवाद के पहिये पर सवार होकर खुद को समाज सुधारक कहने वाले इस वर्ग का सीधा विरोध  राष्ट्र के हर उस तत्व  से है जिनपर आज़ादी से पूर्व के समाज सुधारकों को गर्व था। राष्ट्रभाषा, राष्ट्र सेना, राष्ट्र की प्रशासनिक व्यवस्था, राष्ट्र की कानून व्यवस्था , राष्ट्र के वो व्यवसायी जिनके उद्योगो के दम पर करोडों लोगों को रोजगार मिला हुआ है…. जिनके दम पर राष्ट्र की अर्थव्यवस्था चलती है। राष्ट्र की अवधारणा के विरुद्ध चलने वाले ये कैसे समाज सुधारक हैं? यह विमर्श का मुद्दा है!

  आज़ादी के बाद इस देश में एक लम्बे समय तक लोकतंत्र के नाम पर एक ही परिवार का राजतंत्र चलता रहा। यह इन कथित समाज सुधारकों के लिये स्वर्ण काल था। धडल्ले से लाखों प्रकार के एनजीओ इस देश में बने….लेकिन समाज की स्थिति वही की वही रही …. एक वक्त ऐसा था कि चार बेरोजगार दोस्त मिलकर यह सोचकर ही एनजीओ बना लेते थे कि “यार बहुत कमाई है इसमें” …. एनजीओ की आड में कितनी समाज सेवा हुई यह तो समाज की स्थिति ही देखकर समझ आ जाता है। पर जब सईयां भये कोतवाल तो डर काहे का? कांग्रेसी शासन में इन कथित समाज सेवियों को राष्ट्रीय – अंतराष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़ा गया…. बडे – बडे पद दिये गये। रणनीतिकार के रूप में ये समाज से सहयोगी बने रहे और बढियां मलाई खाते रहे। गरीबी भुखमरी में उलझी जनता इन्हें “मसीहा” के रूप में देखती रही। गरीबों के जीवन से जुडे जो सुधार कार्य जो सरकार को करने थे वो सरकार की छ्त्रछाया में पलने वालें पत्रकार और एनजिओं कर रहे थे…. यहीं से इनकी जडे फैलती चली गयी, और अब सिनेमा जगत के लोग भी इनके झंडे थाम कर खडे हो गये।

2014 में इस देश में दो बडे बदलाव हुए, एक तरफ जहां एक कर्मठ प्रधानमंत्री  देश को मिला, तो वहीं एनजिओ से जन्मा एक मुख्यमंत्री देश की राजधानी दिल्ली को मिला। कर्मठ प्रधानमंत्री ने अपनी इच्छाशक्ति , संकल्पशक्ति और रणनीति के दम पर देश में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन किये। जम्मू कशमीर से अनुच्छेद 370 को हटाना, मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के खौफ से मुक्ति, घर – घर बिजली,गरिबों को आवास,गैस चूल्हा  वितरण …. सब ऐसे कार्य जिनके दम पर बरसों से सामाज सेवकों की दुकानें चलती थी।

दूसरी ओर एनजीओ और आंदोलन  से जन्मी दिल्ली की सरकार है, जिसने दिल्ली को आंदोलनकारियों  की नयी प्रयोगशाला बना दिया है। देश के तमाम मुद्दे अब दिल्ली की सडकों पर ही उठाये जाते हैं….विद्यार्थियोंकी समस्या हो या किसानों की, बेरोजगारों की समस्या हो या पेंशनधारियों की, स्त्रीयों की सुरक्षा का मुद्दा हो या समलैगिकों के अधिकारों की लडाई हो…. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश के हर मुद्दे को आवाज़ देने वाले वही गिने – चुने चेहरे …. ये प्रोफेशनल समाज सेवी हैं! हर वक्त नये मुद्दों की तलाश में रहते हैं! आंदोलन ही इनका व्यवसाय है…. प्रोपोगैंडा इनका हथियार …. भय का व्यापार करते हैं और दिल्ली के आस – पास मौजूद तमाम मीडिया हॉउस 24 घंटे इनके प्रोपोगैंडा को ही राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बनाकर दिखाते हैं! आंदोलनजीवियों का यह खेल तब तक चलता रहेगा , जब तक जनता स्वयं जिम्मेदार बनकर इनके दावों और हकीकत का मेल करना नहीं सीखेगी। मोदी जी ने शुरुआत की है, अब जनता को पहचानना होगा …. इन परजीवी आन्दोलनजीवी व्यावसायिक समाज सेवियों को।

(लेखिका भोपाल रहती हैं। पेशे से प्राध्यापक हैं। अध्ययन और लेखन उनके रुचि का क्षेत्र है।)

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top